यह एक सर्वमान्य सत्य है कि पश्चिमी चिकित्सा प्रणाली यानि एलोपैथी रोग की सिर्फ रोकथाम करती है. उसको जड़ से ख़त्म नहीं करती. रोग को जड़ से ख़त्म करने का काम आयुर्वेद ही करता है. ऐसे लाखों उदहारण हमारे सामने हैं. लेकिन फिर भी आयुर्वेद को अभी भारत में वह मान्यता नहीं मिली है, जो एलोपैथी को मिली है. इसका एक मुख्य कारण तो सरकारी उदासीनता है. आजादी के बाद एक एलोपैथी जैसी चिकित्सा पद्धति को बहुत ज्यादा महत्व दिया गया, जो बिलकुल शैशवावस्था में थी. जबकि हजारों सालों से समृद्ध आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति को अनदेखा कर दिया गया. दूसरा बड़ा कारण यह है कि आम जन मानस में यह बात बैठ गयी है कि आयुर्वेदिक दवाइयां महँगी होती हैं. आइये इस पर विचार करते हैं कि क्या आयुर्वेदिक दवाइयां या औषधियां वाकई महँगी होती हैं?
आयुर्वेदिक औषधियों का स्रोत
आयुर्वेदिक औषधियां हमें वनस्पति के रूप में प्रकृति से ही प्राप्त होती हैं. परन्तु कठिनाई यह है कि सभी औषधियां एक ही स्थान पर पैदा नहीं होती हैं. देश के विभिन्न स्थानों पर ये वनस्पतियाँ पैदा होती हैं. उन वनस्पतियों को इन स्थानों से लाकर इकठ्ठा करना पड़ता है. देश में विभिन्न स्थान विशेष प्रकार की औषधियों के लिए प्रसिद्ध हैं. जैसे उड़ीसा में कुचला (बुखार और संक्रमणों की औषधि) के जंगल हैं. वहां से हजारों टन कुचला प्राप्त की जाती है तथा पूरे विश्व में भेजी जाती है. नेपाल के पहाड़ी तलछटी में चिरायता, पीपरामूल बहुत अधिक मात्रा में मिलता है.
हिमाचल में पैदा होने वाली औषधियां श्रेष्ठ होती है. कुटकी हिमालय की सबसे ऊंची पहाड़ियों पर मिलती है. कुटकी की थोड़ी मात्रा संग्रह करने में ही काफी परिश्रम लगता है. ब्राह्मी देश में कई जगह मिलती है लेकिन हिमालय से प्राप्त ब्राह्मी श्रेष्ठ होती है.सनाय भारत के कई स्थानों पर होती है, लेकिन सर्वश्रेष्ठ सनाय बंगलौर में होती है. बंगलौर से ही सनाय सारे विश्व में जाती है. श्रेष्ठ वनस्पति को प्राप्त करना और संग्रह करना एक दुष्कर कार्य है. औषधीय वनस्पतियों को प्राप्त करने के भी आयुर्वेद में नियम हैं. जिन वनस्पतियों के तने और छाल से औषधियां बनाई जाती हैं, उन्हें हेमंत ऋतु में इकठ्ठा किया जाता है. जिन वनस्पतियों की जड़ से औषधि बनाई जाती है, उनको सर्दियों में इकठ्ठा किया जाता है. और जिन वनस्पतियों के फलों से औषधियां बनाई जाती हैं उनको वसंत ऋतु एवं गर्मियों में इकठ्ठा किया जाता है.
आयुर्वेदिक औषधियों का संग्रह
औषधीय वनस्पतियों को संग्रह करने का भी एक विशेष तरीका होता है. इन वनस्पतियों को पूर्व या उत्तर की दिशा में संग्रह किया जाता है. इनको वनस्पतियों को हवादार और खुले गोदामों में रखा जाता है. एक बात विशेष तौर पर ध्यान रखी जाती है कि एक ही स्थान पर एक से अधिक वनस्पतियों को संग्रह नहीं किया जाता है.
जब आयुर्वेदिक वनस्पतियों को ठीक से संग्रहण नहीं किया जाता, तो उनका प्रभाव कम हो जाता है, और वे बीमारियों पर ठीक से काम नहीं करतीं. इसके अलावा अगर कुछ वनस्पतियां एक वर्ष से अधिक प्रयोग में न लायी जाएँ, तो भी उनका प्रभाव कम हो जाता है. लेकिन यदि औषधीय वनस्पतियाँ श्रेष्ठ तरीके से संग्रह की जाएँ, तो एक वर्ष से अधिक हो जाने पर भी उनका प्रभाव कम नहीं होता. कई बार एक वर्ष बाद वनस्पतियों का रूप, रंग, स्वाद सब बदल जाता है. ऐसी वनस्पतियों को फेंक दिया जाता है. उनको औषधियां बनाने के काम में नहीं लिया जाता. नहीं तो फायदे की जगह नुकसान होने की सम्भावना रहती है.
औषधीय वनस्पतियों से औषधि निर्माण
आयुर्वेद में औषधि निर्माण का काम बहुत दुष्कर है. वनस्पतियों से औषधियां चूर्ण, स्वरस, क्वाथ और भस्म के रूप में बनकर तैयार होती हैं. कई वनस्पतियों को ताजा ही लेकर उनकी औषधियां बनायी जाती हैं. जैसे नीम, पुनर्नवा, असगंध, अदरक, हींग, शतावर आदि वनस्पतियाँ. कुछ वनस्पतियाँ 1 वर्ष पुरानी ही ली जाती हैं. जैसे पिप्पली, बायबिडंग, गुड, धनिया, शहद, गुड और घी. औषधि बनाने के लिए ये वस्तुएं एक वर्ष पुरानी ही ली जाती हैं. वनस्पति नयी हो या पुरानी, औषधि प्रायः ताजी ही बनाकर दी जाती है. इसीलिए औषधि को अधिक मात्रा में नहीं बनाया जाता है. भस्में अधिक मात्रा मन बनाकर रखी जा सकती हैं. क्योंकि भस्में जितनी पुरानी होती हैं, उतनी ही लाभकारी होती हैं.
आयुर्वेदिक औषधियां महँगी क्यों होती हैं
उपरोक्त बिन्दुओं से स्पष्ट है कि आयुर्वेदिक औषधि निर्माण बहुत ही दुष्कर और महंगा काम है. इसमें औषधीय वनस्पतियों से लेकर औषधि निर्माण तक की प्रक्रिया में बहुत सावधानी और परिश्रम की आवश्यकता होती है. सभी प्रकार की सावधानी और परिश्रम के बाद जो औषधि तैयार होती है, वह रोगी के शरीर से तमाम रोगों को निकालकर बाहर कर देती है. सबसे महँगी भस्में हीरक भस्म, स्वर्ण भस्म, मोती भस्म आदि होती हैं. इन सबके योग से बनाई गयी औषधि जैसे आयु प्राइम कैप्सूल भी महँगी ही होती है.
गणित लगायेंगे तो सोच बदल जाएगी
लेकिन भले ही आयुर्वेदिक औषधियां महँगी लगें, लेकिन सार रूप में देखा जाये तो ये औषधियां एलोपैथी दवाइयों से सस्ती पड़ती हैं. उदहारण के लिए आम तौर पर मधुमेह या डाईबिटीज़ के रोगी को जीवन भर दवाइयां खानी होती हैं. डाईबिटीज़ के रोगी को औसतन 15 रूपए रोज़ की दवाई खानी होती है. यदि उसने 30 साल दवाई खायी तो, उसे लगभग 15 रु. x 30 दिन x 12 महीने x 30 वर्ष के हिसाब से लगभग 1,60,000 रूपए की दवाई खानी होगी. महंगाई के हिसाब से यह रकम 3 से 4 लाख भी हो सकती है. वहीँ यदि वह रोगी आयुर्वेदिक औषधियों का प्रयोग करता है, तो 2 से 3 महीने में या अधिक से अधिक एक वर्ष में वह रोगमुक्त हो जाता है. यदि वह आयुर्वेदिक औषधि पर प्रतिदिन 50 रुपये भी खर्च करता है तो एक वर्ष में उसे मात्र 18000 रुपये ही खर्च करने होंगे. जोकि एलोपैथी दवाइयों से कहीं सस्ती है.
आयुर्वेदिक औषधियां महँगी होती हैं या सस्ती, यह सिर्फ किसी व्यक्ति की सोच पर निर्भर करता है. आपका क्या विचार है, सोचकर कमेंट करके ज़रूर बताएं.
आयुर्वेदिक औषधियां कितने समय तक सुरक्षित रहती हैं?
अधिकतर औषधियां ताज़ी ही इस्तेमाल करनी चाहियें. लेकिन काष्ठ औषधि जैसे सूखी जड़, छाल, या पके बीज जैसे पीपल, काली मिर्च आदि औषधियां 1 साल बाद ख़राब होने लगती हैं. यदि रखरखाव ठीक है तो ये औषधियां 2 साल तक भी प्रयोग की जा सकती हैं.
गौण द्रव्य और प्रतिनिधि द्रव्य क्या है?
किसी औषधि को बनाते समय जो द्रव्य आवश्यक होते हैं उन्हें गौण द्रव्य कहते हैं. उन द्रव्यों के न मिलने पर उनके स्थान पर उनके मिलते-जुलते गुणों वाले द्रव्य प्रयोग कर लिए जाते हैं, उन्हें प्रतिनिधि द्रव्य कहते हैं.
सिर दर्द की सबसे अच्छी दवा कौन सी है?
3 रत्ती गोदन्ती भस्म और 1 माशा मिश्री को 10 ग्राम गाय के घी में मिलाकर दिन में 3 बार लेने से सिर के दर्द को बहुत लाभ होता है।