धातुओं के बर्तन आपके शरीर में जहर पहुंचा रहे हैं

खाना पकाने में बर्तनों का चयन आपके स्वस्थ्य में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। हम सभी आधुनिकता और सुविधा की इच्छा के चलते पारंपरिक बर्तनों को छोड़कर हानिकारक धातु के बर्तन अपनाते जा रहे हैं और बीमारियों को निमंत्रण दे चुके हैं।

धातुओं के बर्तन के विषैले प्रभाव : हम पीतल, स्टील, ताम्बा, एल्युमिनियम, कांसा आदि धातुओं से बने बर्तनों की सफाई का बहुत ध्यान रखते हैं. उनको साफ़ करने के लिए महंगी साबुनों का प्रयोग करते हैं. लेकिन क्या आप जानते हैं कि उन धातुओं के बर्तनों में बने खाने में धातुओं के विषैले प्रभाव भी हो सकते हैं। यह बात चौंकाने वाली लगती है किन्तु है सत्य ही.

धातु के बर्तनों में होते हैं कार्बनिक अम्ल

आप जिन बर्तनों में खाना बनाते हैं या खाते हैं, उन बर्तनों के साथ खाना कुछ विषैला प्रभाव उत्पन्न करता है. उदहारण के लिए यदि किसी खट्टे पदार्थ को तांबे या पीतल के बर्तनों में कुछ देर ही रखा जाय, तो उसका स्वाद कसैला हो जाता है. गर्मियों में सुबह की रखी सब्जी अक्सर शाम तक खट्टी हो जाती है। इसे गल्ती से पीतल के बर्तन में यदि रख दिया जाय तो यह कसैली हो जाती है। कसैली न भी पड़े, तो भी रासायनिक क्रिया द्वारा बर्तन की धातु का थोड़ा बहुत अंश खाने के पदार्थों में तो अवश्य घुल जाता है। यह क्रिया खाद्य पदार्थों में पाये जाने वाले कुछ कार्बनिक अम्लों की उपस्थिति के कारण होती है।

गर्मी के कारण अम्ल तीव्रता बढ़ जाती है

गर्मियों में जैविक क्रियाओं द्वारा कार्बनिक अम्ल अधिक बनते हैं। इसलिए गर्मियों में विशेष सावधानी की आवश्यकता रहती है। इस प्रकार रखे गये खाद्य पदार्थ विषैले हो जाते हैं। पीतल के भगोने में दूध रखने पर आपने देखा होगा कि किनारों पर जमी मलाई कई बार हल्का काला या हरापन सा लिये होती है। यह खाने योग्य नहीं होती। इसलिए इसे खुरचकर फेंक देना चाहिए। तांबे या पीतल के बर्तनों में यदि घी – तेल डालकर वस्तुएं पकायी जाती हैं, तो पूरी सम्भावना रहती है कि बर्तनों की धातुओं का कुछ अंश खाद्य पदार्थ में मिल जाए, क्योंकि घी – तेल में पाये जाने वाले कार्बनिक अम्ल ( फेटी एसिड ) इन धातुओं पर जल्दी क्रियाशील हो जाते हैं। यह प्रभाव तब और अधिक हो जता है जब बर्तन साफ न हो या खाद्य पदार्थों में अम्ल की मात्रा अधिक हो. जिन खाद्य पदार्थों का अम्लीय प्रभाव अधिक होता है वे हैं दही और इससे बनी वस्तुएं, नींबू या खटाई, उबली सब्जियां, कच्चे फल वगैरह. पीतल के बर्तनों के अन्दर कलई करवाना इस समस्या का हल है।

किस धातु में कितना जहर?

एल्युमिनियम

आज एल्युमिनियम के बर्तनों का काफी प्रचलन है। एल्युमिनियम हल्की सस्ती और ताप की सुचालक धातु है। खाने को देर तक गर्म करने एल्युमिनियम नमक से साथ प्रतिक्रिया करके अम्ल बनाता है. इसके प्रयोग से पेट में गैस, अफारा और दर्द और जी मिचलाने की समस्या हो सकती है. एल्युमिनियम का प्रेशर कुकर सबसे ख़तरनाक होता है। इसमें भोजन पकाने पर केवल 7% ही माइक्रो न्यूट्रियंट्स बचते हैं। बाकी 93% खत्म हो जाते हैं। अल्युमिनियम जल्दी अवशोषित होने वाली धातु है जिससे खाना मिलकर विषाक्त हो जाता है। अल्युमिनियम, कैल्शियम और आयरन को सोख लेता है जिससे अल्जाइमर, नर्वस सिस्टम और हड्डियां कमजोर हो जाती हैं। यह एक भारी धातु है, जिसका प्रयोग सिर्फ चावल जैसे जल्दी तैयार होने वाले भोजनों के लिए करना चाहिए.

लैड या शीशा

लैड या शीशा एक विषैली धातु है जिसका उपयोग अनजाने में किया जाता है। क्राकरी के रंगों रंगीन पेंसिलों पेण्ट वगैरह में शीशे के बने पदार्थों का प्रयोग किया जाता है हम प्रतिदिन पांच पचास माइक्रोग्राम तक शीशा खा जाते हैं। एक माइक्रोग्राम एक ग्राम का दस लाखवां भाग है शीशे की यह मात्रा, जो एक व्यक्ति प्रतिदिन खा जाता है लगती तो बहुत कम है, लेकिन शीशा एक ऐसा विष है जो शरीर से आसानी से विसर्जित नहीं होता। शीशे के विषैले प्रभाव के परिणाम हैं, शरीर का सुस्त पड़ना, खून की कमी होना आदि कई दशाओं में लकवा और मस्तिष्क पर प्रभाव भी होते देखे गये हैं। घरों में बाल्टियों ड्रमों वगैरह में अंदर की ओर सफेदा ( लैड पेंद ) आम तौर से पोत दिया जाता है। इन बर्तनों में भरा पानी इस्तेमाल करने से शीशे का कुछ अंश शरीर में भी जा सकता है। शीशे की कुछ मात्रा वायु प्रदूषण के कारण भी शरीर में चली जाती है। महानगरों में वायु प्रदूषण एक बड़ी समस्या है। मोटर गाड़ियों, कारों और दूसरे वाहनों से निकले धुएं में शीशे के अंश होते हैं। यह श्वास द्वारा शरीर में चला जाता है। शीशे के विषैले प्रभाव का असर उन व्यक्तियों पर भी हो सकता है जो प्रेस या प्रिंटिंग के धन्धे में लगे हुए हैं वैसे तो क्राकरी पर लगे पेण्ट से शीशे को कुछ क्रियाओं द्वारा निकाल दिया जाता है। लेकिन इसकी कुछ मात्रा फिर भी रह जाए, तो वह खाने – पीने के साथ जाकर शरीर पर दुष्प्रभाव डाल सकती है। कई बार बच्चों को बेकार हो गये बैटरी सैल दे दिये जाते हैं। अपनी स्वाभाविक उत्सुकतावश बच्चे इन्हें तोड़कर देखने की कोशिश करते हैं। इन सैलों में मैंगनीज डाइ आक्साइड रसायन होता है। इसके अलावा सैल का खोल जस्ते की धातु का बना रहता है। मैंगनीज और जस्ते दोनों ही धातु शरीर के लिए विषैले हैं। बच्चे सैल तोड़कर खेलें या देखें इसमें तो कोई परेशानी नहीं लेकिन मैंगनीज और जस्ते जैसे पदार्थों के अंश उनके पेट में न चले जाएं, इस बात की सावधानी आवश्यक है।

पीतल और ताम्बा

पुराने समय में खाना बनाने में पीतल और ताम्बा सबसे अधिक प्रयोग किया जाता था. दोनों के गुण लगभग एक से ही होते हैं. इन बर्तनों में खाना बनाना और खाना दोनों ही स्वास्थ्यवर्धक होता है. बशर्ते कि उन बर्तनों की सफाई का ध्यान रखा जाये. इसलिए पीतल और ताम्बे के बर्तनों में समय-समय पर कलई की ज़रुरत पड़ती है. अगर लम्बे समय तक कलई न की जाये, तो पीतल और ताम्बा खाने के साथ प्रतिक्रिया करके खाने को जहरीला बनाने लगते है. लम्बे समय तक खाने की वस्तु इन बर्तनों में रखने पर खाने के किनारों पर अम्ल की हरी परत जम जाती है. यह खाना खाने पर पेट में दर्द या उलटी भी हो सकती है. तांबे को आँच पर नहीं चढ़ाया जाना चाहिए। इसका पानी पीना अमृत तुल्य है ये रक्त शुद्धि का सबसे लाभदायक स्रोत है। इसलिए ज़रूरी है कि पीतल और ताम्बे के बर्तनों को केवल पानी रखने, पानी गर्म करने आदि के लिए प्रयोग किया जाये. इसके अलावा ये वात, कफ और पित्त को भी बैलेंस रखने में सहयोगी है।

पारा

शीशे की रह पारा भी एक विषैली धातु इसकी थोड़ी – सी मात्रा ही काफी दुष्प्रभाव डाल सकती है। डाक्टरी थर्मामीटर हम आमतौर पर इस्तेमाल करते ही हैं। बच्चों का तापक्रम देखते समय विशेष सावधानी बरतने की आवश्यकता रहती है क्योंकि जरा सी असावधानी से थर्मामीटर का बल्ब टूटने से पारा बच्चे के पेट में जा सकता है।

मिट्टी के बर्तन में खाना बनाने के फायदे

शरीर को अगर नियमित तौर पर पर्याप्त माइक्रो न्यूट्रियंट्स (सूक्ष्म पोषक तत्व) चाहियें। ये माइक्रो न्यूट्रियंट्स (सूक्ष्म पोषक तत्व) शरीर की बढ़वार और शरीर को बीमारियों से बचाने के लिए आवश्यक हैं। लेकिन धातुओं के बर्तनों में ये पोषक तत्त्व काफी हद तक खत्म हो जाते हैं। इसलिए खाना पकाने का सबसे सुरक्षित, उपयुक्त और पवित्र मिट्टी का बर्तन है।

  • मिट्टी के पात्र में पका भोजन अन्य धातु की तुलना में जल्दी खराब नहीं होता।
  • मिट्टी का बर्तन भोजन को पकाता है, सिर्फ गलाता नहीं।
  • मिट्टी के बर्तन में पके खाने के माइक्रो न्यूट्रियंट्स 100% अपने प्राकृतिक रुप में सुरक्षित रहते हैं।
  • मिट्टी के बर्तन में पका भोजन वात पित्त और कफ को सम रखता है अगर शरीर में वात, कफ और पित्त की मात्रा सम है तो रोग होने की संभावना न के बराबर होती है।

किन धातुओं के बर्तन में खाना बनाना चाहिए

मिट्टी के अलावा अगर कोई और धातु उपयुक्त है तो वह है काँसा, इसमें खाना पकाने पर केवल 3% माइक्रो न्यूट्रियंट्स कम होते हैं। उसके बाद आता है पीतल, इसमें पकाने पर 7% माइक्रो न्यूट्रियंट्स कम होते हैं। लोहे के बर्तन में आयरन प्रचुर मात्रा में मिलता है इसमें हरे साग-सब्जी बनाया जाना स्वादिष्ट और लाभकारी है।

यह भी पढ़ें :

वात-पित्त-कफ प्रकृति के अनुसार आहार 

वात-पित्त-कफ प्रकृति के लक्षण और बीमारियाँ

Healthnia